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Saturday, January 30, 2010

काफी हद तक कम हो सकते हैं भूकंप के खतरे

हैती में भूकंप से हुई जान-माल की क्षति ने प्रकृति की भयावहता को एक बार फिर प्रदर्शित किया है। भारत भी भूकंप के हिसाब से बेहद संवेदनशील राष्ट्र है। देश ने गढ़वाल और लातूर के भयानक भूकंप पिछले दशकों में देखे हैं। इसके बावजूद भूकंप के खतरों को कम करने के उपायों को लेकर देश में अपेक्षित कार्य नहीं हुआ है। आज विज्ञान की बदौलत ऐसे तकनीकें उपलब्ध हैं जो भूकंप के खतरों को न्यूनतम स्तर पर ला सकती हैं। लेकिन न तो नीतिगत स्तर पर इन पर अमल किया जा रहा है और न ही आम लोगों में इनके प्रति जागरूकता बढ़ रही है। इसलिए यह खतरा पूरे देश पर मंडरा रहा है।


भूकंप की भविष्यवाणी

भूंकप खतरा आकलन केंद्र के प्रभारी डॉ. एके शुक्ला के अनुसार अभी तक वैज्ञानिक पृथ्वी की अंदर होने वाली भूकंपीय हलचलों का पूर्वानुमान कर पाने में असमर्थ रहे हैं। इसलिए भूकंप की भविष्यवाणी करना फिलहाल संभव नहीं है। वैसे विश्व में इस विषय पर सैकड़ों शोध चल रहे हैं। भारत में ज्यादातर भूकंप टैक्टोनिक प्लेट में होने वाली हलचलों के कारण आते हैं क्योंकि भारत इसी के ऊपर बसा है। लेकिन इन हलचलों का आकलन संभव नहीं है, लेकिन शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि इस टैक्टोनिक प्लेट का हिस्सा आयरलैंड में सतह के करीब है। शोध चल रहे हैं और हो सकता है कि भविष्य में टैक्टोनिक प्लेट में होने वाली हलचलों का पहले ही अंदाजा लगाने में वैज्ञानिक सफल हो जाएं। लेकिन इसके बावजूद भूकंप की भविष्यवाणी से फायदा यह होगा कि लोगों की जान बच जाएगी, लेकिन भवनों और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर को होने वाली क्षति को हम तब भी नहीं रोक पाएंगे। इसलिए दुनिया में नीतिगत स्तर पर दोनों दिशाओं में काम हो रहा है। एक पूर्व सूचना, दूसरे भवन और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट ऐसे बनाए जाएं कि भूकंप से होने वाली क्षति को कम से कम किया जा सके।


पुराने भवनों को भूकंपरोधी बनाना

सालों पहले भूकंप रोधी निर्माण तकनीकें उपलब्ध नहीं थीं। तब जो भवन, पुल आदि बने थे उनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल नहीं हो पाया था, लेकिन अब जब यह खतरा बढ़ रहा है और हमारे पास ऐसी तकनीकें हैं कि उन्हें भूकंपरोधी बनाया जाए तो इस दिशा में पहल होनी चाहिए। भू्कंप के हिसाब से संवेदनशील क्षेत्रों में इन तकनीकों को लोग अपना भी रहे हैं। गुजरात के लातूर में सरकारी एजेंसियों ने भी लोगों को यह तकनीकें मुहैया कराई हैं। पुराने भवनों को रेट्रोफिटिंग (Retrofitting) के जरिए भूकंप रोधी बनाया जा सकता है। रेट्रोफिटिंग को भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा मान्यता प्राप्त है तथा कोई भी सिविल इंजीनियर यह तकनीक किसी भवन में लगा सकता है।


क्या है SEISMIC RETROFIT ?

(Seismic retrofitting is the modification of existing structures to make them more resistant to seismic activity, ground motion, or soil failure due to earthquakes.)

इसके तहत पुराने भवन (जो पिलर पर नहीं बने हैं) में दरवाजों और खिड़कियों के ऊपर वाले हिस्सों में जहां से छत शुरू होती है, लिंटर बैंड डाले जाते हैं। इसके तहत भवन की चारों दीवारों के कोनों को लिंटर बैंड के जरिए आपस में जोड़ दिया जाता है। फर्क यह है कि लिंटर बैंड में लोहे की नई स्टील की छड़ें इस्तेमाल होती हैं जो कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं।

भूकंप विशेषज्ञों के अनुसार जब भूकंप आता है तो सबसे ज्यादा खतरा उन भवनों को होता है जो पिलर पर खड़ी नहीं होती हैं। भूंकप के दौरान पिलर पर खड़ी इमारत एक साथ हिलती है जबकि बिना पिलर की इमारत की चारों दीवारें स्वतंत्र रूप से अलग-अलग हिलती हैं। इसलिए भवन गिरने लगते हैं। रेट्रोफिटिंग बिना पिलर वाली इमारतों को काफी हद तक जोड़ देती है और दीवार अलग-अलग नहीं हिलती हैं। यह सौ फीसदी तो नहीं 80 फीसदी तक भूकंप के खतरे को कम कर देती हैं।


पिलर पर बनी इमारतें पूरी तरह सुरक्षित हैं ?

नहीं, पूरी तरह तो नहीं लेकिन बिना पिलर वाली इमारतों की तुलना में काफी हद तक सुरक्षित हैं। अलबत्ता पिलर वाली इमारत में यदि उसकी बुनियाद में भी भूकंपरोधी स्ट्रक्चर डाल दिया जाए तो फिर वे 90-95 फीसदी तक भूकंपरोधी हो जाती हैं। वैसे कुछ नई तकनीकें भी आजमाई जा रही हैं। न्यूजीलैंड में पुरानी इमारतों को भूकंपरोधी बनाने के लिए बेस आइसोलेसन तकनीक अपनाई जा रही हैं, इसमें भवन की बुनियाद के नीचे चारों तरफ मैटल का एक ऐसा स्ट्रक्चर खड़ा कर दिया जाता है जो भूकंप के कंपन को निचले हिस्से तक ही सीमित रखता है।


भूकंपीय जोन

भूकंप का खतरा देश में हर जगह अलग-अलग है। इस खतरे के हिसाब से देश को चार हिस्सों में बांटा गया है। जोन-2, जोन-3, जोन-4 तथा जोन पांच। इनमें सबसे कम खतरे वाला जोन 2 है तथा सबसे ज्यादा खतरे वाला जोन-5 है। नार्थ-ईस्ट के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हि.प्र. के कुछ हिस्से जोन-5 में आते हैं। उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सों से लेकर उ.प्र. के ज्यादातर हिस्से, दिल्ली जोन-4 में आते हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-2 में आते हैं, लेकिन यह एक मोटा वर्गीकरण है। दिल्ली में कुछ इलाके हैं जो जोन-5 की तरह खतरे वाले हो सकते हैं। इस प्रकार दक्षिण राज्यों में कई स्थान ऐसे हो सकते हैं जो जोन-4 या जोन-5 जैसे खतरे वाले हो सकते हैं। दूसरे जोन-5 में भी कुछ इलाके हो सकते हैं जहां भूकंप का खतरा बहुत कम हो और वे जोन-2 की तरह कम खतरे वाले हों। इसके लिए भूकंपीय माइक्रोजोनेशन की जरूरत होती है।


क्या है भूकंपीय माइक्रोजोनिंग?

माइक्रोजोनिक यानी सूक्ष्म वर्गीकरण करना। इसमें सतह की जमीन की संरचना की जांच की जाती है। दरअसल, जब भूकंप आता है तो मकान का भविष्य काफी हद तक जमीन की संरचना पर भी निर्भर करता है। मसलन, यदि भवन किसी नमी वाली सतह पर बना है यानी रिज क्षेत्र या किसी ऐसी मिट्टी में जो लंबे समय तक पानी को सोखती है तो उसे खतरा ज्यादा है। वहां मिट्टी लूज हो जाती है, खतरा ज्यादा है। जहां मिट्टी शुष्क या बालू वाली हो, या पत्थर की चट्टानें नीचे हों, तो उसके भूकंप के दौरान अलग-अलग प्रभाव होते हैं। माइक्रोजोनिंग में क्षेत्र में प्रति 200 से 500 मीटर की दूरी पर जमीन में ड्रिलिंग करके मिट्टी के नमूने एकत्र किए जाते हैं तथा उसकी वैज्ञानिक जांच के बाद तय किया जाता है कि वह स्थान कितना संवेदनशील हैं।


दिल्ली की माइक्रोजोनिंग की जा चुकी है तथा भूंकप के हिसाब से इसे 9 हिस्सों में विभाजित किया जा चुका है। इनमें घनी आबादी वाले यमुनापार समेत तीन जोन सर्वाधिक खतरनाक हैं। पांच जोन मध्यम खतरे वाले हैं तथा सिर्फ एक जोन ही सुरक्षित है। साइंस और टेक्नोलॉजी मंत्रलय ने माइक्रोजोनिंग का ब्यौरा शहरी विकास मंत्रलय को सौंप दिया है और सिफारिश की है कि दिल्ली में भवन निर्माण के दौरान माइक्रोजोनिंग के नतीजों के आधार पर भवनों में भूकंपरोधी तकनीक इस्तेमाल की जाए। इसी रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली में पुराने भवनों को भी भूकंप रोधी बनाया जाए।

उधर, नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (National Disaster Management Authority) ने भी अपने दिशा-निर्देशों में कहा है कि नए बनने वाले स्कूलों, अस्पतालों और सरकारी इमारतों को भूकंपरोधी बनाया जाए। इसे स्वीकार कर लिया गया है तथा नई इमारतों में इसका ध्यान रखा जा रहा है। हालांकि, निजी भवनों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता सरकार ने नहीं की है, लेकिन बिल्डर स्वेच्छा से अपनी इमारतों में भूकंपरोधी तकनीक अपना रहे हैं।

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